ग़ज़ल एक तरह का छंद (verse form) है, और गज़लें किसी भी भाषा में लिखी जा सकती है। ये शेरों का संग्रह है और बहर, रदीफ़, क़ाफ़िया, मतला और मक़्ता नियमों का पालन करती है।
हम इन नियमों को समझने के लिए शायर सईद ‘राही’ की इस ग़ज़ल, जिसे पंकज उधास ने गया है, का सहारा लेंगें:
क्या जाने कब कहाँ से चुराई मेरी ग़ज़ल
उस शोख ने मुझी को सुनाई मेरी ग़ज़ल
पूछा जो मैंने उससे कि है कौन खुशनसीब
आँखों से मुस्कुरा के लगाई मेरी ग़ज़ल
एक-एक लफ्ज़ बन के उठा था धुआं-धुंआ
उसने जो गुनगुना के सुनाई मेरी ग़ज़ल
हर एक शख्स मेरी ग़ज़ल गुनगुनाये है
‘राही’ तेरी जुबां पे न आई मेरी ग़ज़ल
शेर: यह दो पंक्तियों (couplet) की स्वयं में सम्पूर्ण कविता है। हर शेर का खुद अपने आप में मायने होना चाहिए, इसे आत्मनिर्भर होना चाहिए और इसके मतलब को समझने के लिए ग़ज़ल के किसी और शेर की जरूरत नहीं होनी चहिये। ग़ज़ल के सारे शेर एक ही मजमून के होते हैं, लेकिन यह जरूरी नहीं कि किसी शेर संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो। ग़ज़ल में कम से कम पांच शेर होते हैं। हालांकि ऊपर दी हुई ग़ज़ल में चार शेर ही हैं।
बहर: बहर शेर का मीटर है, ये शेर के मिसरों (पंक्तियों) की लम्बाई और pattern को दर्शाता है, और इसको वजन के हिसाब से मापने का तरीका है। ग़ज़ल के हर शेर, और हर शेर के दोनों मिसरा एक ही बहर के होने चाहिए। कुल १९ तरह के बहर हैं, और ये लम्बाई के अनुसार तीन तरह की होती है: छोटी, मध्यम और लम्बी। मैं बहर को बहुत अच्छी तरह से अभी नहीं समझ पाया हूँ।
रदीफ़: ग़ज़ल के हर शेर के दूसरे मिसरा का अंत एक ही जैसे लफ्जों से होना चाहिये। जैसे कि ऊपर दी हुई ग़ज़ल के हर शेर का दूसरा मिसरा "मेरी ग़ज़ल" पे समाप्त होता है, तो इस ग़ज़ल का रदीफ़ "मेरी ग़ज़ल" है।
क़ाफ़िया: ग़ज़ल के हर शेर में रदीफ़ के पहले आने वाले लफ्जों का तुक (rhyme) एक जैसा होना चाहिये। ऊपर दी हुई ग़ज़ल में "मेरी ग़ज़ल" के पहले सुनाई, लगाई और आई शब्द आते हैं, तो क़ाफ़िया "…आई" है।
मतला: ग़ज़ल के पहले शेर को मतला कहते हैं, इस शेर के दोनों मिसरों में रदीफ़ होना चाहिये। ऊपर दी हुई ग़ज़ल के पहले शेर की दोनों पंक्तियाँ "मेरी ग़ज़ल" पे खत्म होती हैं। ग़ज़ल में एक से ज्यादा मतला हो सकते हैं।
मक़्ता: हर शायर का आम तौर पर एक तखल्लुस (pseudonym, pen name) होता है, जैसे कि ऊपर दी ग़ज़ल के शायर का तखल्लुस ‘राही’ है (मिर्जा असदुल्ला खान ‘ग़ालिब’, ‘मीर’ तकी मीर, ‘दाग’ देहलवी, अहमद ‘फ़राज़’ अन्य उदहारण हैं)। ग़ज़ल के आखरी शेर में तखल्लुस आना चाहिये, और इस शेर को मक़्ता कहते हैं।
संक्षेप में, ग़ज़ल शेरों का संग्रह है, जिसमे एक या अधिक मतला होते हैं, एक मक़्ता होता है; हर शेर का समान बहर, और अंत में समान रदीफ़ और क़ाफ़िया होता हैं।